भीलवाड़ा में रिश्तों का नया अध्याय: जब मुस्लिम बेटे ने हिंदू माँ की चिता को दी अग्नि

भीलवाड़ा की सरजमीं पर इंसानियत का वो चेहरा सामने आया है, जिसने धर्म की दीवारों को तोड़कर दिल के रिश्ते की गहराई को साबित कर दिया। यह कहानी है 67 साल की शांति देवी और उनके बेटे जैसे मानने वाले असगर अली खान की। इस मार्मिक दृश्य को देखकर भीलवाड़ा ही नहीं, बल्कि पूरा देश नम आँखों से इस अनूठे रिश्ते को सलाम कर रहा है।

पिछले 15 सालों से जंगी चौक में रह रहीं शांति देवी का रविवार को निधन हो गया। उनके परिवार में कोई नहीं बचा था, जो उनका अंतिम संस्कार कर सके। लेकिन, उनके लिए यह दुख की घड़ी अकेलेपन की नहीं थी, क्योंकि उनके पास था असगर अली खान का साथ, जिसने उन्हें कभी पराया नहीं समझा। असगर ने, जिन्हें शांति देवी ने बचपन से माँ का प्यार दिया था, अंतिम संस्कार की सभी रस्में निभाने का फैसला किया।

अंतिम यात्रा की तैयारी में असगर के साथ उनके दोस्त अशफाक कुरैशी, शाकिर पठान, फिरोज कुरैशी और कई अन्य मुस्लिम युवा शामिल हुए। जब मोक्ष रथ चला, तो हर आँख में आँसू थे। गली की महिलाओं का रुदन इस बात की गवाही दे रहा था कि शांति देवी सिर्फ एक किराएदार नहीं, बल्कि पूरे मोहल्ले की माँ थीं। जिस तरह असगर और उनके दोस्तों ने कंधे से कंधा मिलाकर शांति देवी की अर्थी को श्मशान घाट तक पहुंचाया, वो दृश्य हमेशा के लिए लोगों के दिलों में बस गया है।

असगर अली खान ने नम आँखों से बताया, “जब मैं छोटा था, तब से उन्होंने मुझे माँ का प्यार दिया। मेरे माता-पिता के गुजर जाने के बाद, उनका दुलार ही मेरा सहारा था। वो हर दिन मुझसे पूछती थीं कि मैंने खाना खाया या नहीं, मेरी तबीयत कैसी है। उनके जाने के बाद मुझे लगा, जैसे मेरी अपनी माँ फिर से मुझसे बिछड़ गई हों।”

असगर ने सिर्फ अंतिम संस्कार ही नहीं किया, बल्कि हिंदू रीति-रिवाजों के अनुसार सभी रस्में भी पूरी कीं। उन्होंने यह भी प्रण लिया है कि वो शांति देवी की अस्थियों का विसर्जन त्रिवेणी संगम या मातृकुंडिया में करेंगे।

यह घटना दिखाती है कि प्रेम और सम्मान के रिश्ते किसी धर्म के मोहताज नहीं होते। भीलवाड़ा की यह कहानी सिर्फ एक अंतिम संस्कार की नहीं, बल्कि मानवता, करुणा और आपसी भाईचारे की एक ऐसी मिसाल है, जो हमें हमेशा यह याद दिलाती रहेगी कि दिल का रिश्ता खून के रिश्ते से कहीं ज़्यादा मजबूत होता है।

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