पल पल राजस्थान @ लखन शर्मा

जहाँ एक ओर सरकारें ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा बुलंद कर रही हैं, वहीं दूसरी ओर ज़मीनी सच्चाई उन नारों की गूंज को खोखला साबित कर रही है। उदयपुर के हरियाली अमावस्या मेले में एक मासूम बच्ची, जिसकी उम्र स्कूल की यूनिफॉर्म में दोस्तों संग हँसने और खेलते हुए बीतनी चाहिए थी, वह आज अपनी छोटी-सी जान को हथेली पर रखकर रस्सी पर चलने को मजबूर है।
नंगे पाँव, उलझे बाल और ज़िम्मेदारी से भरी आँखें — उस बच्ची की सूरत देखने पर कोई भी भावुक हुए बिना नहीं रह सकता। लेकिन उस भीड़ में, जहाँ हज़ारों लोग मेले की चकाचौंध का आनंद ले रहे थे, किसी की संवेदना इस मासूम तक नहीं पहुँची। कोई उसे किताब नहीं थमाता, कोई उसका हाथ थामकर स्कूल नहीं ले जाता, कोई उसका सिर सहलाकर कहता—”तू अकेली नहीं है।”
बल्कि लोग जुटे थे… लेकिन सिर्फ मोबाइल कैमरों के पीछे से उसे कैद करने के लिए। वीडियो बनाई जा रही थी, ताकि सोशल मीडिया पर व्यूज़ और लाइक्स की होड़ में एक ‘इमोशनल कंटेंट’ और जुड़ जाए।
यह दृश्य सिर्फ एक बच्ची की मजबूरी नहीं, हमारे समाज का आईना है।
मंचों पर घोषणाएँ, ज़मीनी हकीकत में खामोशी
सरकारी मंचों पर बालिका शिक्षा, महिला सशक्तिकरण और सामाजिक न्याय की लंबी-चौड़ी घोषणाएँ की जाती हैं। बजट आवंटित होता है, योजनाएँ घोषित होती हैं, कार्यक्रम आयोजित होते हैं। लेकिन जब वही सरकार के अधिकारी उसी मेले में मौजूद होते हैं, और उनकी नज़रों के सामने एक नाबालिग बच्ची जान हथेली पर लेकर करतब दिखा रही होती है, तब न कोई रुकता है, न कोई टोकता है।
ये सवाल सिर्फ उस बच्ची के जीवन से नहीं जुड़ा है, यह सवाल हमारी प्राथमिकताओं, हमारी नीति-निर्माण की संवेदनशीलता और सामाजिक ताने-बाने से जुड़ा है।
संवेदनहीन समाज, तमाशबीन भीड़
यह बच्ची किसी टीवी शो की कलाकार नहीं है। न ही यह करतब उसकी कोई “पसंद” है। यह भूख की मजबूरी है, पेट की आग है, ज़िंदगी का संघर्ष है। लेकिन समाज इसे ‘एंटरटेनमेंट’ समझ बैठा है।
लोग हँसते रहे, हैरान होते रहे, मोबाइल निकालते रहे। लेकिन किसी ने यह नहीं सोचा कि यदि यह बच्ची ज़रा भी चूकी, तो क्या होगा? क्या उसके गिरने की आवाज़ भी उन्हें वीडियो में चाहिए थी?
हमारे लिए यह महज एक स्टोरी हो सकती है, उसके लिए ज़िंदगी है
कई लोगों के लिए यह ख़बर महज एक वायरल क्लिप हो सकती है, लेकिन उस बच्ची के लिए यह उसका पूरा जीवन है। एक वक्त की रोटी का सवाल है, अपने परिवार की ज़िम्मेदारी उठाने की जद्दोजहद है।
यह कहानी सिर्फ उसके बचपन की नहीं है, यह पूरे सिस्टम की नाकामी की कहानी है।
समय है जागने का, सिर्फ देखने का नहीं
आज ज़रूरत है सिर्फ ‘देखने’ की नहीं, ‘करने’ की है। ज़रूरत है उस व्यवस्था को झकझोरने की जो मंच पर भाषण तो देती है, लेकिन ज़मीन पर बालिकाओं को उनकी उम्र से पहले थका देती है। ज़रूरत है उस भीड़ को चेताने की जो संवेदना खो बैठी है। ज़रूरत है उस मीडिया को आत्ममंथन करने की, जो वीडियो तो बनाता है लेकिन आवाज़ नहीं उठाता।
क्योंकि अगर आज हम चुप रहे… तो कल यह रस्सी किसी और बेटी के लिए मौत की डोर बन सकती है।